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क्या म्यांमार दूसरे 1988 विद्रोह के करीब?

म्यांमार में छात्र आंदोलनकारियों ने देश में बेहद नापसंद की जानी वाली सैन्य सरकार के ख़ात्मे के लिए मोर्चा खोल रखा है.

छात्रों का आंदोलन पूरे देश में फैल चुका है. जितने ज़ोर-शोर से आम हड़तालें हो रही हैं सेना उतनी ही बेरहमी से उन्हें कुचलने में लगी है. लेकिन यह पूरा परिदृश्य कब का है? साल 2021 का या साल 1988 का.

साल 1988 का विद्रोह आधुनिक म्यांमार के इतिहास का निर्णायक क्षण था. सत्ता पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए बेइंतहा हिंसा का सहारा लेने वालों ने अचानक ख़ुद को भारी विरोध के सामने खड़ा पाया. सैनिक शासन ने देश की अर्थव्यवस्था को जिस बुरी तरह से तहस-नहस किया था उसके ख़िलाफ़ जनता का ग़ुस्सा फूट पड़ा था.

साल 1988 तक बर्मा ( तब तक इस दक्षिण पूर्व एशियाई देश को इसी नाम से जाना जाता था) में बेहद गोपनीय तरीक़े अपनाने वाले अंधविश्वासी जनरल ने वीन के सैनिक शासन के मिलिट्री शासन को 26 साल हो चुके थे. जनरल विन ने साल 1962 के तख्तापलट में सत्ता पर कब्जा कर लिया था.

जनरल सेना के कमांडर थे. म्यांमार की सेना को तामदौ कहा जाता है. बर्मा को साल 1948 में आजादी मिली थी और तभी से सेना देश के कई हिस्सों में विद्रोहों को दबाने में लगी हुई थी. सेना का मानना था नागरिक शासन में देश को एकजुट रखने की क्षमता नहीं है.

जनरल ने विन ने बर्मा का संपर्क बाक़ी दुनिया से पूरी तरह से काट दिया था. उस दौरान शीतयुद्ध की वजह से एशिया दो खेमों में बँट चुका था. लेकिन जनरल ने इसका हिस्सा बनने से इनकार कर दिया.

इसके बजाय उन्होंने सनक भरे फ़ैसले लेने वाली एक पार्टी वाली व्यवस्था शुरू की. पार्टी पर सेना का वर्चस्व था. जल्द ही विन की बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी के फैसलों की वजह से बर्मा दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में शामिल हो गया

वर्ष 1988 के अगस्त और सितंबर में बर्मा का राजनीतिक आंदोलन चरम पर पहुंच गया था. उस दौरान इसने आम लोगों की बड़ी-बड़ी रैलियों का रूप ले लिया था.

दरअसल, इस राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत एक साल पहले ही हो गई थी, जब विन ने अचानक देश में नोटबंदी कर दी थी. बैंकों में जमा सारे नोट डी-मोनेटाइजेशन के दायरे में आ गए थे.

बर्मा की अर्थव्यवस्था पर इसके विनाशकारी असर हुए. ख़ास कर उन छात्रों पर जिन्होंने अपनी ट्यूशन फीस चुकाने के लिए बचत के पैसे बैंकों में रखे थे.

सन 88 की पीढ़ी

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उसी वक़्त सेना और नागरिकों के बीच टकराव शुरू हो गए. सैनिकों ने जनता के ख़िलाफ़ इतने घातक हथियारों का इस्तेमाल किया कि 1988 के आख़िरी महीनों तक मरने वालों की तादाद हज़ारों में पहुँच चुकी थी.

पिछले महीने के सैन्य तख्तापलट ने लोगों को झकझोर कर रख दिया है. फिर भी नागरिकों के आंदोलन को कुचलने के लिए सेना की हिंसा अभी 1988 के स्तर पर नहीं पहुंची है.

1988 में जिन छात्र-छात्राओं ने सैनिक शासन के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी, उन्हें ’88 की पीढ़ी’ कहा जाता है. इनमें से कइयों ने भारी प्रताड़नाओं के दो दशक जेल में बिताए थे.

उन्होंने कई चीजों से महरूम रखा गया था. कई आंदोलनकारियों का स्वास्थ्य हमेशा के लिए ख़राब हो गया था लेकिन उनके हौसले जिंदा थे. इनमें से कइयों को अब एक बार फिर सैनिक शासन के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरते देखा जा रहा है.

मगर ये आंदोलनकारी अब युवा नहीं रहे. 88 की पीढ़ी के सबसे मशहूर आंदोलनकारी हैं 58 साल के मिन को नाइंग. वो दौर अलग था. लेकिन अब टेक्नोलॉजी ने विरोध का पूरा परिदृश्य नाटकीय ढंग से बदल दिया है. अब हर टकराव को फ़िल्माना संभव हो गया है. इसे तुरंत अपलोड कर शेयर किया जा सकता है और इस तरह सेना के बल प्रयोग के किसी भी कदम की रिकार्डिंग की जा सकती है.

सोशल मीडिया बनाम पर्चेबाज़ी

टेक्नोलॉजी की बदौलत म्यांमार के दूर-दराज के इलाक़े में रहने वाले लोगों को आंदोलन की ताजा ख़बर मिल जाती है. उन्हें पता है कि कहाँ क्या हो रहा है. फ़ेसबुक और ट्विटर पर शेयर होते हुए आंदोलनकारियों के विरोध प्रदर्शन और सेना से टकराव से जुड़ी खबरें बड़े शहरों और देश के दूर-दराज के इलाक़ों में एक साथ पहुंच जाती हैं.

1988 में सैनिक शासन के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने वाले छात्र-छात्राओं को अपनी बात लोगों तक पहुँचाने के लिए हाथ से लिखे या छपे हुए पर्चे का सहारा लेना पड़ता था. या फिर आपसी संवाद के ज़रिये ही लोगों तक संदेश पहुंच पाते थे.

काफ़ी कम लोगों के पास टेलीविजन था. यहां तक कि लैंडलाइन फ़ोन भी बहुत कम घरों में थे. उस वक़्त सिर्फ़ शॉर्टवेब पर खरखराती बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ही लोगों का एक मात्र सहारा थी. बर्मा के लोगों और अंग्रेज़ी भाषी लोगों, दोनों के लिए इसी सर्विस का आसरा रह गया था.

क्रिस्टोफर गननेस उस वक्त बीबीसी के युवा रिपोर्टर हुआ करते थे. वे उन चंद विदेशियों में शामिल थे जो थोड़े समय के लिए बर्मा के उस उथलपुथल भरी घटनाओं की रिपोर्टिंग करने में सफल रहे थे.

अपनी ख़बरों की वजह से क्रिस्टोफर जनता के हीरो बन चुके थे. बर्मा की जनता और दुनिया के लोगों को उन्हीं की ख़बरों से लोगों के बीच 8.8.88 के नाम से पुकारी जाने वाली आम हड़ताल के बारे में पता चला. हज़ारों लोग हड़ताल के दौरान सड़कों पर उतर आए. इसके बाद सेना का बेहद ख़ूनी दमन शुरू हुआ.

दरअसल 1988 में बर्मा की जनता 26 साल के आर्थिक अलगाव और भारी ग़रीबी से तंग आकर सड़कों पर उतरी थी. वह इस दौर से अलग था, जब दस साल के लोकतांत्रिक शासन के बाद अचानक सेना ने सत्ता हथिया ली है.

सेना के ख़िलाफ़ 2021 के आंदोलन का नेतृत्व कर रह लोग आर्थिक संभावनाओं और दुनिया तक अपनी पहुँच को बरकरार रखना चाहते हैं. वे इनकी क़ीमत जानते है क्योंकि अपने माता-पिता के दौर की तुलना में इस पीढ़ी के पास इसके मौक़े कहीं ज़्यादा रहे हैं.

नौकरशाह रह चुके और अब नागरिक अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय ये लॉन्ग ऑन्ग कहते हैं, “1988 के विद्रोह ने इसलिए भी ज़ोर पकड़ा क्योंकि वह म्यांमार की समाजवादी व्यवस्था से पैदा नाराज़गी का नतीजा था.”

वह कहते हैं, “लेकिन जब यह व्यवस्था ध्वस्त हो गई तो देश पर मिलिट्री शासक काबिज हो गए. लेकिन 2021 में सेना ने चुनी हुई नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की सरकार से जबरदस्ती सत्ता छीन ली. तब और अब में यही बड़ा अंतर है. हम नागरिक अवज्ञा आंदोलन में इसलिए शामिल हुए हैं क्योंकि हम सिर्फ़ चुनी हुई नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी सरकार को ही मान्यता देते हैं. 1988 में नौकरशाहों ने आमतौर पर काम पर इसलिए जाना बंद कर दिया था कि जनता के बीच अराजकता फैल गई थी और हिंसा हो रही थी. लेकिन आज हम तख्तापलट करने वाली सरकार का हिस्सा नहीं बनना चाहते. इसलिए अपनी नौकरियों पर नहीं जाना चाहते.”

एक आंग सान सू ची बनाम हज़ारों नेता

1988 के विद्रोह के दौरान आंग सान सू ची साफ़ तौर पर विपक्ष की नेता बन कर सामने आईं. उस समय वह सिर्फ़ अपनी बीमार मां की देखभाल के लिए देश में थीं. लेकिन विद्रोह को दिशा देने के लिए उन्होंने सेना के सीनियर अफसरों आंग गेई और तिन ओ के साथ मिलकर नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की नींव रखी जो कि केंद्रीकृत संगठन था. संगठन पर इसके बड़े नेताओं का नियंत्रण था.

दूसरी ओर देश में चल रहे मौजूदा संघर्ष को लोग ”नेताविहीन आंदोलन” कह रहे हैं. अब इसके हज़ारों नेता हैं. हर कोई स्थानीय स्तर पर इस ढीले-ढाले और लचीले आंदोलन को संगठित कर रहा है.

अतीत से सबक

आज के दौर के आंदोलनकारी 1988 के दौर को एक संदर्भ बिंदु के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं. 1988 का आंदोलन उऩ्हें कई सबक़ दे सकता है.

1988 में विरोध प्रदर्शन करने वाले आंदोलनकारियों ने प्रतीकात्मक तौर पर एक नागरिक नेता को स्थापित करने का जश्न मनाने में बहुत जल्दबाजी दिखाई थी. साथ ही उन्होंने एक एकीकृत आंदोलन के तहत ख़ुद को संगठित करने में भी बड़ी देर की.

ने विन ने जुलाई में इस्तीफ़ा दे दिया था. उनके उत्तराधिकारी जनरल सीन ल्विन की सत्ता सिर्फ़ 17 दिनों तक चली. 8.8.88 के आंदोलनकारियों के क्रूर दमन के लिए अक्सर उन्हें ‘रंगून का कसाई’ कहा जाता था.

इस बीच आंदोलन की दिशा को लेकर मतभेद उभर आए. डरी हुई जनता के बीच अराजकता बढ़ने लगी क्योंकि सर्वोच्च सत्ता के न रहने से स्थानीय प्रशासन बिखर गया था.

इन हालातों ने सेना को मौक़ा दे दिया और फिर 18 सितंबर ( 1988) को एक तख्तापलट के लिए ज़रिये उसने सत्ता पर कब्जा कर लिया. इसके बाद 20 साल से अधिक लंबे समय तक कठोर अधिनायकवादी शासन चला. उस दौरान उस पीढ़ी के लिए सिर्फ़ आंग सान सू ची एक मात्र उम्मीद की किरण बनी हुई थीं. सू ची को सैनिक शासन के दौरान पूरे दो दशक तक नज़रबंद रहना पड़ा.

1988 में छात्र आंदोलनकारियों और केंद्र के हल्के नियंत्रण और मज़बूत संघीय व्यवस्था के लिए लड़ रहे कई जातीय अल्पसंख्यक नेताओं के बीच समन्वय और संवाद काफ़ी कम था. बर्मा के जातीय बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों बीच अविश्वास का यह माहौल आज भी बरकरार है.

हालांकि नागरिक अवज्ञा आंदोलन के युवा कार्यकर्ता आज ज़्यादा समावेशी और प्रतिनिधित्व वाली राजनीति की मांग कर रह हैं. वे करेन, कचिन और रोहिंग्या जैसे जातीय अल्पसंख्यक समूहों पर किए गए भयावह अत्याचारों और उनकी उपेक्षा के लिए माफ़ी मांग रहे हैं.

नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर में सोशियोलॉजी/एंथ्रोपोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर और म्यांमार पर काफ़ी लिख चुके इलियट-प्रास-फ्रीमैन कहते हैं, “हर कोई इस बात पर सहमत है कि दुश्मन तो सेना ही है. लेकिन वे बड़ी तेजी से इस बात को लेकर भी सजग हैं कि सिर्फ़ अपने मताधिकार का सम्मान के लिए वोट देकर आंग सान सू ची को फिर सेना की खटपट वाली साझेदारी वाली सत्ता में ला बिठाना ठीक नहीं होगा.”

“सेना ने जिस तरह से जनता की ओर से चुनी गई सरकार में जबरदस्ती ख़ुद को साझीदार बना लिया था, उससे मुख्यधारा के उदारवादियों का उस वास्तविकता से सामना होने लगा था जिस कथित तौर पर लोकतंत्र कहा जा रहा था. वास्तव मे वह कथित लोकतंत्र ही था. “

1988 के जन विद्रोह के बाद पैदा राजनीतिक शून्य में सत्ता पर काबिज हुए सैनिक शासन का अनुभव म्यांमार के लिए अच्छा नहीं रहा. भ्रष्ट कारोबारी सौदों के जरिये जनरलों ने अकूत संपत्ति कमाई. सैनिक शासन के इस लालच की वजह से लोग देश की एकता के रक्षक के तौर पर कुढ़ते हुए ही सही जो सम्मान देते थे, वह खत्म हो गया.

1988 में देश को लोकतंत्र की ओर आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने (अलबत्ता ये वादे सेना ने अपने समय और शर्तों के आधार पर ही किए थे) जो वादे किए थे उसे एक बार तोड़ डाला है.

सेना देश के लोगों को यह अहसास कराने में सफल रही है कि चाहे वह कुछ भी कहे लेकिन एक चीज़ याद रहनी चाहिए कि स्वतंत्र म्यांमार के 73 साल के इतिहास में ज़्यादातर समय रही अपनी पकड़ को कमज़ोर होने देने का उसका कोई इरादा नहीं है.

लोगों में यह अहसास कितना गहरा है इसका पता इसी से चल जाता है वो इस बार सत्ता पर सेना का कब्जा हटाने के लिए जान देने को तैयार हैं. पिछली बार के उलट इस बार के तख्तापलट को कामयाब होने से रोकने के लिए वो जी-जान लगाए हुए हैं.

इलियट प्रास-फ्रीमैन कहते हैं, “सेना के जनरल पहले ये कह सकते थे कि भले ही दिखावटी और तोड़-मरोड़ कर ही सही लेकिन 1988 के बाद देश को लोकतंत्र की ओर बढ़ाने का वादा तो उन्होंने पूरा तो किया ही.”

“लेकिन इस बार सेना के जनरल यह बात नहीं कह सकते. ज़्यादातर लोगों की नज़र में उनका पूरा तौर-तरीक़ा अब किसी आतंकवादी संगठन से कम नहीं रह गया है. अंग्रेजी और बर्मी, दोनों में इसे अकयान-पेट थामा (akyan-pet thama) कहा जा रहा है. दिन में पुलिस और सुरक्षाकर्मी शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों को पीट रहे हैं. गोलियां दाग कर उनकी हत्या कर रहे हैं. सर्कुलेट किए जा रहे वीडियो में रात में वे कारों को नुकसान पहुंचाते दिख रहे हैं. कहीं ट्रिशॉ तोड़ रहे हैं तो कहीं नागरिकों पर अंधाधुंध गोलियां चला रहे हैं.”

इलियट प्रास-फ्रीमैन कहते हैं, “सेना लंबे समय तक नागरिकों और अपने दुश्मन के तौर पर देखती आई है. लेकिन सेना की ये कार्रवाइयां बेहद उग्र और अमानवीय हैं. इन करतूतों ने सेना और नागरिकों की बीच की खाई और चौड़ी कर दी है. “

म्यांमार- प्रोफाइल

म्यांमार को पहले बर्मा के नाम से जाना जाता था. इसे 1948 में ब्रिटेन से आजादी मिली. अपने आधुनिक इतिहास का एक बड़ा दौर इसने सैनिक शासन में गुजारा है.

सेना की पकड़ यहां 2010 के बाद ढीली हुई. 2015 में स्वतंत्र चुनाव हुए और इसके अगले साल आंग सान सू ची की सरकार बनी.

2017 में म्यांमार की सेना ने रोहिंग्या चरमपंथियों की ओर से पुलिस पर हमले का जवाब दिया. इस कार्रवाई में रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की गई.

इस कार्रवाई में लगभग पांच लाख रोहिंग्या मुसलमानों को भाग कर बांग्लादेश में शरण लेनी पड़ी. इसे संयुक्त राष्ट्र ने बाद में ‘जातीय नरसंहार का बिल्कुल सटीक उदाहरण बताया’.

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