“अगर एक देश दूसरे देश पर हमला कर दे, तो कोई ये कहेगा कि हम गर्मियों के बाद लड़ेंगे? मौसम अभी ठीक नहीं है. मौसम और समय देखकर लड़ाई नहीं लड़ी जाती.” आँखों पर नज़र का चश्मा और कुर्ता-पायजामा पहने बुज़ुर्ग के इन शब्दों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया.
इनका नाम था कश्मीर सिंह. गर्मी के मौसम में आंदोलन कैसे चलेगा? मेरे इस सवाल का जवाब देकर, उन्होंने फिर से अपनी नज़रें अखबार पर टिका लीं.
कश्मीर सिंह जैसे बहुत से किसान मोदी सरकार द्वारा लाये गये नये कृषि क़ानूनों के विरोध में दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर प्रदर्शन कर रहे हैं.
आंदोलन के तीन महीने बाद, सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर अब स्थिति कैसी है, किसान और उनके नेता अब क्या सोच रहे हैं? यह समझने के लिए बीबीसी की एक टीम ने दोनों बॉर्डरों का दौरा किया.
समय: सुबह के 9 बजे, जगह: सिंघु बॉर्डर
दिल्ली-अमृतसर राजमार्ग पर लगे एक टेंट में भारतीय किसान संघ (राजेवाल) के कार्यालय में किसान आते हैं और एक रजिस्टर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं. थोड़ी देर बैठने और बातचीत करने के बाद वो चले जाते हैं. रजिस्टर में किसान अपना नाम, गाँव का नाम और टेलीफ़ोन नंबर दर्ज करते हैं.
कार्यालय के प्रभारी हरदीप सिंह ने हमें बताया कि ‘आंदोलन में किसानों की संख्या का रिकॉर्ड वो इसके माध्यम से रखते हैं और दूसरे आंदोलन में क्या हो रहा है, उसकी सूचना इनको दी जाती है. साथ ही अगर किसी किसान को कोई समस्या है तो उसे हल किया जाता है.’
हाज़िरी लगाने का काम सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक चलता है.
लेकिन आंदोलन में कम होती भीड़ के सवाल पर हरदीप सिंह ने कहा, “अब यहाँ केवल किसान हैं और माँगें पूरी होने तक वो यहीं बैठेंगे.”
हरदीप सिंह का कहना है कि गेहूँ की कटाई शुरू होनी वाली है, इसलिए कुछ किसान गाँवों की तरफ जा रहे हैं. लेकिन ट्रैक्टर-ट्रालियाँ और किसान पहले की तरह यहाँ आंदोलन में मौजूद हैं.
हरदीप सिंह कहते हैं, “आंदोलन और फसल, दोनों ही किसानों के लिए महत्वपूर्ण हैं, इसलिए हमने अब रोटेशन की नीति लागू कर दी है. एक सप्ताह बिताने के बाद, एक टीम गाँव चली जाती है और फिर उसी दिन दूसरी टीम दिल्ली आकर मोर्चा संभालती है. इसलिए आंदोलन और किसानों में पूरा जोश है.”
सुरक्षाबलों की मौजूदगी
किसान आंदोलन के तीन महीने बाद सिंघु बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर पर पहुँचना अब पहले जैसा आसान नहीं रह गया.
ख़ासतौर पर, 26 जनवरी की घटना के बाद इन मोर्चों पर सुरक्षाबलों की मौजूदगी काफ़ी बढ़ा दी गई है.
पुलिस और अर्ध-सैनिक बल विभिन्न स्थानों पर मौजूद हैं. इन दोनों बॉर्डरों पर बड़े-बड़े पत्थर और कंटीली तारें, पुलिस और किसानों को एक-दूसरे से अलग करते हैं.
सिंघु को जाने वाले वाहनों को अब गुरु तेग बहादुर स्मारक स्थल से लगभग दो किलोमीटर पहले ही पुलिस रोक देती है.
हाँ, सिंघु और टिकरी को जाने वाले अन्य छोटे रास्ते आपको आंदोलन-स्थल तक पहुँचा देते हैं.
गर्मियों की तैयारी
लगभग 11 बजे के बाद, जैसे-जैसे सूरज की गर्मी बढ़ने लगी, जिस टेंट में बैठकर हम किसानों से बात कर रहे थे, उसके अंदर का तापमान भी बढ़ना शुरू हो गया और वहाँ चल रहे कूलर की हवा भी बेअसर होनी शुरू हो गई.
गर्मी के मौसम में आंदोलन कैसे जारी रहेगा, मेरे इस सवाल के जवाब में किसानों का कहना था कि ‘हम बाँस और बल्लियों की मदद से तम्बू बना रहे हैं जिन पर घास की छत डाली जायेगी. इससे गर्मी कम लगेगी. इसके अलावा कूलर, पंखे और क्षमता के मुताबिक़ एयर कंडीशनर भी इनमें फ़िट कर रहे हैं.’
कुछ जगह हमने देखा कि कई टेंटों में एसी और कूलर फ़िट कर दिये गए हैं.
हरदीप सिंह कहते हैं कि किसान गर्मी में ही फ़सल पैदा करता है, इसलिए हम पर इसका क्या असर होगा.
इसी बातचीत के दौरान, हमारी मुलाक़ात पंजाब के पटियाला ज़िले से आये मनजीत सिंह से हुई.
मनजीत सिंह मज़दूरों की मदद से बाँस और घास की छत (छप्पर) तैयार करवा रहे थे.
मनजीत के कहा, “हमने पहले सर्दियों का सामना किया. अब हम गर्मी को टक्कर देंगे. ये छप्पर डालने के बाद, उस पर तिरपाल डाली जायेगी, ताकि बारिश भी इसका कुछ ना बिगाड़ सके.”
उन्होंने बताया कि इस ढाँचे को तैयार करने में लगभग 25,000 रुपये ख़र्च होंगे.
मनजीत ने कहा, “हम पैसे बचाने के लिए तीन गाँवों का एक टेंट तैयार कर रहे हैं. सबने इसके लिये पैसे मिलाये हैं. हमने मिलकर तय किया कि अपने टेंट में हम फ़्रिज, कूलर और पंखे की व्यवस्था करेंगे. चूंकि हम खुले आसमान के तले बैठे हैं, इसलिए अगर गर्मी बर्दाश्त के बाहर हो गई तो हम एसी भी लगायेंगे.”
पर वो ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसके जवाब में उन्होंने कहा, “हमें लगता नहीं कि आंदोलन जल्द ख़त्म होगा. सरकार अड़ी हुई है. उन्हें हम दिखाई नहीं दे रहे. इसलिए अपनी जगह मज़बूत करनी होगी, इसीलिए ये तैयारियाँ की जा रही हैं. अब ये जितने भी दिन खींचेंगे, हम तैयार हैं.”
कुछ किसानों ने अपनी ट्रॉलियों को प्लाईवुड के बोर्ड से कवर कर लिया है और उनमें एसी फ़िट कर लिये हैं. इनमें ख़बरें देखने और मनोरंजन के लिए टीवी भी लगाये गए हैं.
अब आंदोलन कैसा दिखता है?
सिंघु और टिकरी बॉर्डर के जिस हिस्से में आंदोलन चल रहा है, वो अपने आप में एक शहर जैसा दिखने लगा है.
शोर पहले से कुछ कम हुआ है. किसानों ने अपने ट्रैक्टरों को तिरपाल से ढक लिया है. स्थानीय दुकानदार और बाकी लोग अपने रोज़ के काम-धंधों में लगे हुए नज़र आते हैं.
आंदोलन स्थल के भीतर टी-शर्ट, जूते, चप्पल, चाय, गन्ने का रस, अन्य ज़रूरी सामान बेचने वालों की दुकानें आराम से चल रही हैं.
पर दोपहर होते-होते यहाँ भीड़ कम दिखाई देने लगती है. हालांकि, शाम को मेले जैसा माहौल होता है. लोगों की भीड़ दिखाई देने लगती है.
प्रदर्शनकारियों के अनुसार, गर्मी के कारण ऐसा होने लगा है. लोग दिन में अपने-अपने टेंटों में आराम करते हैं और शाम को अपने काम करते हैं और चर्चा करते हैं.
लंगर चलाने के अलावा, आंदोलन-स्थल की सफ़ाई का काम भी किसान मिलकर करते हैं.
किसानों ने गर्मी के मौसम में पानी की आपूर्ति के लिए दोनों स्थानों पर बोरवेल स्थापित किये हैं.
साथ ही लंगर में बनने वाले खाने में भी बदलाव किया गया है. अब चाय के साथ शरबत और गन्ने के रस का लंगर भी दिखाई दिया. कुछ जगहों पर जलेबी के लंगर भी चलते दिखे.
कुछ किसानों ने लंगर चलाते समय अपनी मदद के लिए स्थानीय पुरुषों और महिलाओं को काम पर रख लिया है.
गुरसेवक सिंह कहते हैं कि ‘अभी बहुत काम करना है, इसलिए हमने लंगर तैयार करने के लिए दो स्थानीय लोगों को काम पर रख लिया है.’
तीन महीने में किसानों का जीवन कितना बदला
टिकरी और सिंघु, दोनों ही जगह किसानों ने अपने टेंटों के सामने फूल-पौधे उगा लिये हैं. कुछ किसानों ने खाली जगह में सब्ज़ियाँ उगाना शुरू किया है.
जालंधर से आये सेवा सिंह पिछले तीन महीने से सिंघु पर ही डटे हुए हैं.
तीस वर्षीय सेवा सिंह कहते हैं, “अब हम खाली हाथ गाँव नहीं जा सकते, क्योंकि ये अब सम्मान का सवाल भी है. अगर अब हम खाली हाथ गाँव लौट गये, तो लोग हमारा मज़ाक बनायेंगे, और ये कम चिंता की बात नहीं है.”
सेवा सिंह के मुताबिक़, अब गाँव के लोग उन्हें दिल्लीवाले कहने लगे हैं.
सेवा सिंह ने हमें दिखाया कि उन्होंने अपने यहाँ फ़्रिज, वॉशिंग मशीन और कूलर के अलावा, सुरक्षा के मद्देनज़र सीसीटीवी भी फ़िट कर लिये हैं.
टिकरी बॉर्डर पर पंजाब के ही मोगा ज़िले से आये किसान गुरसेवक सिंह ने खाली पड़ी ज़मीन को किसान-हवेली में बदल दिया है.
उन्होंने यहाँ एक पार्क, खेल का मैदान और रात में सोने के लिए टेंट स्थापित कर दिये हैं.
बीबीसी से बातचीत में गुरसेवक सिंह ने एक महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा, “जिस आंदोलन में तीन पीढ़ियाँ (बच्चे, युवा और बुज़ुर्ग) शामिल हों, वहाँ जीत सुनिश्चित है और सरकार को आज नहीं तो कल हमारी माँगों को मानना पड़ेगा.”
किसान नेताओं की अगली रणनीति क्या है?
किसान आंदोलन का नेतृत्व संयुक्त किसान मोर्चा करता है, जिसमें विभिन्न किसान संगठन शामिल हैं.
किसान नेता फ़िलहाल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र भाजपा के ख़िलाफ़ प्रचार कर रहे हैं.
भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के अध्यक्ष बलवीर सिंह राजेवाल कहते हैं कि ‘भाजपा को वोट मत दो.’ इसके पीछे उनका तर्क है कि ये पार्टी कॉरपोरेट्स की तरफ है, इसलिए देश को बचाने के लिए इन्हें सत्ता से बाहर करना ज़रूरी है.
राजेवाल कहते हैं कि अंदोलन से सरकार डर गई है और उसे तीनों क़ानून वापस लेने ही होंगे.
किसान नेता डॉक्टर दर्शनपाल कहते हैं कि पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम आंदोलन को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं है.
सरकार के साथ बातचीत के मुद्दे पर, भारतीय किसान यूनियन (उगराहां) के अध्यक्ष जोगिंदर सिंह उगराहां का कहना है कि 100 दिनों के किसान आंदोलन से बहुत कुछ हासिल हुआ है. उन्होंने कहा कि अगर सरकार क़ानून को निलंबित करने की बात करती है, तो यह भी किसान आंदोलन की एक उपलब्धि है.
उन्होंने कहा कि सरकार के साथ औपचारिक बातचीत फ़िलहाल बंद थी, लेकिन अनौपचारिक बातचीत जारी है. लेकिन हम स्पष्ट करते हैं कि क़ानून निरस्त होने के बाद ही घर जाएंगे.
जोगिंदर सिंह उगराहां पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार के पक्ष में नहीं हैं. उनका तर्क है कि ‘हमारा संगठन ये नहीं कह सकता कि किसे वोट देना चाहिए या किसे नहीं. हम वोट की राजनीति से बचते हैं.’
उगराहां का कहना है कि सरकार सत्ता में है और वो अपनी शक्ति का इस्तेमा करके हमें जबरन उठा भी सकती है, लेकिन अगर वो ऐसा करती है तो भविष्य में इसके परिणाम उसे भुगतने होंगे.
वे कहते हैं कि ये आंदोलन 2024 तक चल सकता है. कुछ इसी तरह की बात किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी भी कहते हैं कि अगर ये आंदोलन लंबा चलता है, तो 2024 के चुनाव में मुख्य मुद्दा किसान ही होगा.
गुरनाम सिंह कहते है कि अगर हमारे पास ज़मीन ही ना रहेगी, तब भी हम भूख से मरेंगे इसलिए अगर मरना ही है, तो फिर हम आंदोलन करके मरें.
किसान नेता टिकैत की टिप्पणी से संयुक्त मोर्चा नाख़ुश
किसान नेता राकेश टिकैत की संसद तक मार्च करने की हालिया टिप्पणी से संयुक्त किसान मोर्चा ख़ुश नहीं है.
ख़ासकर डॉक्टर दर्शनपाल और बलवीर सिंह राजेवाल ने इससे असहमति ज़ाहिर की है.
उनका कहना है कि वे जो मर्ज़ी कहें, पर अंतिम फ़ैसला संयुक्त किसान मोर्चा ही लेगा.
डॉक्टर दर्शनपाल कहते हैं कि राकेश टिकैत को इस टिप्पणी से बचना चाहिए था.
अब किसान नेताओं का प्रयास 26 मार्च के भारत बंद को सफल बनाने पर केंद्रित है, जो 26 जनवरी की घटना के बाद एक बड़ा कार्यक्रम है.
जानकारों की राय
हमने इस आंदोलन के वर्तमान और भविष्य के मुद्दों पर पंजाब विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग के प्रोफ़ेसर ख़ालिद मोहम्मद से बात की.
उन्होंने कहा कि शुरू से ही सरकार चाहती थी कि किसान निराश-हताश होकर घर लौट जायें, लेकिन जिस तरह से किसानों को समाज के विभिन्न वर्गों से समर्थन मिल रहा है, उसे देखकर नहीं लगता कि सरकार की यह रणनीति असफल होगी.
दूसरी बात है – अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निरंतर सरकार की हो रही आलोचनाएं.
ख़ालिद के अनुसार, आंदोलन के पक्ष में आवाज़ें विभिन्न देशों से लगातार उठ रही हैं.
ख़ासतौर पर ब्रिटिश संसद और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग तक आंदोलन की आवाज़ पहुँचना ये दर्शाता है कि सरकार दबाव में है.
इसके अलावा, आंदोलन को लेकर भाजपा के भीतर भी आवाज़ उठने लगी है जिससे पता चलता है कि सरकार को जल्द ही इस पर कोई फ़ैसला लेना होगा.
वहीं पंजाब यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हरजेश्वर सिंह का कहना है कि विधानसभा चुनावों, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के परिणाम, आंदोलन का भविष्य तय करेंगे.
वे कहते हैं कि यह तय है कि किसान खाली हाथ नहीं लौटेंगे. यह अब सरकार को तय करना है कि तीनों क़ानूनों और एमएसपी पर क़ानूनी गारंटी कैसे देनी है या फिर इसका कोई और हल करना है.