13 अप्रैल 1919 की तारीख किसी भी हिन्दुस्तानी को भूलनी नहीं चाहिए. जगह थी अमृतसर का जलियांवाला बाग़. बैसाखी का दिन था. करीब 20 से 25 हजार लोगों की भीड़ बाग़ में जुटी हुई थी. यहां 4.30 बजे से एक जलसा शुरू होने वाला था. जलसा शुरू होने के कुछ समय पहले कर्नल रेगीनाल्ड डायर, सिख, बलूच और राजपूत रेजिमेंट के 90 सिपाहियों के साथ बाग़ में पहुंचा. सैनिक ली एनफील्ड रायफल के साथ थे. ली एनफील्ड रायफल पहले विश्व युद्ध के दौरान खूब नाम कमा चुकी थी. बाग़ के एकमात्र दरवाजे को छेक लिया गया और डायर ने गोली चलाने का आदेश दिया.
भीड़ इतनी ज़्यादा थी कि एक कारतूस दो-तीन लोगों को छेदते हुए निकल जा रहा था. वहां पर मौजूद कुएं में लोग अपनी जान बचाने के लिए कूदने लगे. बाद में इस कुएं से 120 लाशें निकाली गईं. एक हज़ार से ज्यादा लोगों की मौत की बात बरतानियां हुकूमत ने कुबूली थी. इस नरसंहार ने उस समय हर आदमी को हिलाकर रख दिया था.
उन दिनों इंटरनेट नहीं था. अखबारों में 15 दिन पुरानी घटना ताज़ा खबर की तरह छपा करती थी. कुछ दिन बाद जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की खबर गुजरात के भावनगर पहुंची तो उसे पढ़कर एक 20 वर्षीय कॉलेज छात्र का मन उचट गया. अगले ही साल यानी 1920 में उसकी ग्रेजुएशन पूरी हुई तो उसने अंग्रेज सरकार की दी हुई डिग्री लेने से इन्कार कर दिया. कॉलेज से निकलने के बाद इस युवक ने लाला लाजपतराय के संगठन ‘सर्वेंट ऑफ़ पीपल’ की सदस्यता ले ली. इस छात्र का नाम था बलवंतराय मेहता. आज जन्मदिन है.
सर्वेंट ऑफ़ इंडिया गैर-राजनीतिक संगठन था. लाला जी ने कांग्रेस से इतर सामाजिक सेवा के लिए इस संगठन को बनाया था. बलवंतराय मेहता लंबे समय तक इसके सदस्य रहे और दो बार इसके अध्यक्ष भी चुने गए. 1921 वो साल था जब बलवंतराय का सियासी सफ़र शुरू हुआ. 1921 में उन्होंने भावनगर प्रजामंडल की स्थापना की. उस समय भावनगर एक प्रिंसली स्टेट या रजवाड़ा हुआ करता था. यहां अंग्रेजों का सीधा कब्ज़ा नहीं था. गुहिल राजा कृष्णाकुमार सिंह का राज हुआ करता था. महज़ 21 की उम्र में बलवंतराय सामंती शासन के खिलाफ मोर्चा लेना शुरू कर चुके थे.
1928 में सूरत के बारडोली में गांधी जी और सरदार पटेल के नेतृत्व में सत्याग्रह शुरू हुआ. बलवंतराय इस सत्याग्रह के महत्वपूर्ण सदस्य बनके उभरे. 1930 से 32 तक चले असहयोग आंदोलन के दौरान वो जेल में रहे. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें फिर से जेल में डाल दिया गया. वो आज़ादी से पहले करीब सात साल तक जेल में रहे.
आज़ादी के बाद गांधी जी के कहने पर उन्होंने कांग्रेस कार्यकारिणी की सदस्यता ली. 1952 में देश में पहली बार चुनाव हुए. भावनगर को उस समय गोहिल राजाओं की वजह से गोहिलवाड़ के नाम से जाना जाता था. बलवंतराय यहां से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव में उतर गए. उनके मुकाबिल थे, निर्दलीय उम्मीदवार कृष्णलाल. बलवंतराय मेहता 80,256 वोट हासिल करके माननीय सांसद बने.
1957 में दूसरी लोकसभा के चुनाव थे. बलवंतराय गोहिलवाड़ (भावनगर) से चुनाव लड़ गए. सामने थे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के जशवंत भाई मेहता. बलवंतराय 82,582 वोट हासिल कर आसानी से चुनाव जीत गए. वहीं जशवंत भाई मेहता महज़ 62958 वोट ही हासिल कर पाए.
पंचायती राज के पितामह
गांधी ने ‘स्वराज’ का जो खाका खींचा था, उसमें हर गांव को एक स्वंतत्र इकाई की तरह काम करना था. वो चाहते थे कि हर गांव इतना आत्मनिर्भर हो कि अपनी सरकार खुद चला सके. इसलिए हर गांव और गांव की पंचायत का मजबूत होना जरूरी था. 1957 में दूसरे लोकसभा चुनाव के बाद पंडित नेहरू ने इस दिशा में पहलकदमी की. दरअसल 1957 की जनवरी में सामुदायिक विकास के कार्यक्रमों की जांच के लिए एक कमिटी बनाई गई थी. इस कमिटी की अध्यक्षता कर रहे थे बलवंतराय मेहता. नवंबर 1957 में इस कमिटी ने अपनी सिफारिशें सौंपी. तीन स्तर वाले पंचायती राज का पूरा खाका सामने रखा गया.
एक अप्रैल 1958 को संसद ने बलवंतराय मेहता कमिटी की सफारिशों को पारित कर उन्हें लागू किया. दो अक्टूबर 1959 को पंडित नेहरू ने राजस्थान के नागौर जिले से भारत में पंचायती राज की विधिवत शुरुआत की. लेकिन इन सिफारिशों को पूरी तरह लागू करने वाला पहला राज्य बना आंध्र प्रदेश.
भारत में पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा हासिल करने के लिए काफी इंतजार करना पड़ा. 1993 में 73वां संशोधन कर पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा दिया गया. इनके नियमित चुनाव सुनिश्चित किए गए. लेकिन बलवंतराय मेहता कमिटी द्वारा सुझाए गए तीन स्तरीय पंचायती राज के ढांचे में कोई बदलाव नहीं किया गया. ये तीन स्तर हैं: गांव के लेवल पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक के लेवल पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला पंचायत. इस तरह आज भी बलवंतराय मेहता का दिया हुआ ढांचा यथावत जारी है.
गुजरात का मुख्यमंत्री
24 अगस्त 1963 को आए कामराज प्लान ने कांग्रेस के कई कद्दावर नेताओं की बलि ली. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्ता नेहरू के विरोधी खेमे से आते थे. कामराज प्लान के तहत नेहरू ने अगस्त 1963 में चंद्रभानु गुप्ता से इस्तीफ़ा ले लिया. मोरारजी देसाई इस इस्तीफे के बहुत खिलाफ थे. उन्होंने पहले नेहरू को समझाने की कोशिश की. जब नेहरू नहीं माने तो वो इसी प्लान के तहत जीवराज मेहता के इस्तीफे पर अड़ गए. गुजरात मोरारजी का गृहराज्य था. जीवराज मेहता, मोरारजी की मर्जी के खिलाफ़ नेहरू की सिफारिश के चलते सूबे के पहले मुख्यमंत्री बने थे. मोरारजी के दबाव की वजह से जीवराज मेहता को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा.
मोरारजी पहले भी बलवंतराय मेहता का नाम सुझा चुके थे, लेकिन नेहरू के सामने उनकी ज्यादा चल नहीं पाई थी. इस मौके पर उन्होंने अपनी पसंद के आदमी को गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा ही दिया. सितंबर 1963 को बलवंतराय मेहता राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री बने.
एक नेता जो युद्ध में शहीद हुआ
ये 19 सितम्बर 1965 की बात है. भारत-पकिस्तान का युद्ध चरम पर था. युद्ध की वजह से गुजरात में सांप्रदायिक तनाव की स्थितियां भी पैदा हो रही थीं. बलवंतराय मेहता ने तय किया कि वो द्वारका के पास स्थित मीठापुर रैली के लिए जाएंगे. द्वारका से कराची की दूरी 350 किलोमीटर है. ये युद्ध का समय था और विमान में सवार होकर सीमा के इतने करीब जाना खतरनाक साबित हो सकता था.
दोपहर का खाना खाने के बाद बलवंतराय मेहता अहमदाबाद हवाई अड्डे पहुंचे. वहां एक ब्रीचक्राफ्ट विमान उनके इंतजार में खड़ा था. इस विमान के पायलट थे जहांगीर जंगू. यहां से द्वारका की दूरी थी 441 किलोमीटर. विमान ने उड़ान भरी और द्वारका की तरफ रवाना हुआ.
इधर करीब साढ़े तीन बजे कराची के पास ही बने मेरीपुर एयरबेस पर एक पायलट अपनी उड़ान की तैयारी कर रहा था. उसने अभी चार महीने पहले ही अमेरिका से एफ़ 86 सेबर विमान उड़ाने की ट्रेनिंग ली थी. उसे कहा गया कि भुज के पास उड़ रहे एक विमान की टोह लेकर आएं. इस पायलट का नाम था फ़्लाइंग ऑफ़िसर क़ैस मज़हर हुसैन.
बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कैस याद करते हैं–
“स्क्रैंबल का सायरन बजने के तीन मिनट बाद मैंने जहाज़ स्टार्ट किया. मेरे बदीन रडार स्टेशन ने मुझे सलाह दी कि मैं बीस हज़ार फ़ुट की ऊंचाई पर उड़ूं. उसी ऊंचाई पर मैंने भारत की सीमा भी पार की.
तीन चार मिनट बाद उन्होंने मुझे नीचे आने के लिए कहा. तीन हज़ार फ़ुट की ऊंचाई पर मुझे ये भारतीय जहाज़ दिखाई दिया जो भुज की तरफ़ जा रहा था. मैंने उसे मिठाली गांव के ऊपर इंटरसेप्ट किया. जब मैंने देखा कि ये सिविलियन जहाज़ है तो मैंने उस पर छूटते ही फ़ायरिंग शुरू नहीं की. मैंने अपने कंट्रोलर को रिपोर्ट किया कि ये असैनिक जहाज़ है.
मैं उस जहाज़ के इतने करीब गया कि उसका नंबर भी पढ़ सकता था. मैंने कंट्रोलर को बताया कि इस पर विक्टर टैंगो लिखा हुआ है. ये आठ सीटर जहाज़ है. बताइए इसका क्या करना है?
उन्होंने मुझसे कहा कि आप वहीं रहें और हमारे निर्देश का इंतज़ार करें. इंतज़ार करते–करते तीन चार मिनट गुज़र गए. मैं काफ़ी नीचे उड़ रहा था, इसलिए मुझे फ़िक्र हो रही थी कि वापस जाते समय मेरा ईंधन न ख़त्म हो जाए लेकिन तभी मेरे पास हुक्म आया कि आप इस जहाज़ को शूट कर दें.”
कैस दुविधा में थे. उन्हें मालूम था कि ये एक असैनिक विमान है. वो इस बारे में भी बहुत निश्चिन्त नहीं थे कि ये विमान सीमा पर पाकिस्तानी क्षेत्र की टोह ले रहा है या नहीं. कैस बताते हैं-
“जब मैंने उस जहाज़ को इंटरसेप्ट किया तो उसने अपने विंग्स को हिलाना शुरू किया जिसका मतलब होता है ‘हैव मर्सी ऑन मी’. लेकिन दिक्कत ये थी कि हमें शक था कि ये सीमा के इतने नज़दीक उड़ रहा है. कहीं ये वहां की तस्वीरें तो नहीं ले रहा है?”
वो विमान औंधे मुंह जमीन पर गिरा
कैस एक फाइटर पायलट थे. उन्हें इस बात की कड़ी ट्रेनिंग दी गई थी कि बिना सवाल किए वो दिए हुए निर्देशों का पालन करें. उन्होंने बलवंतराय के विमान से सौ मीटर ऊपर जाकर निशाना लिया. कैस बताते हैं-
“कंट्रोलर ने कहा कि आप इसे शूट करिए. मैंने 100 फ़ुट की दूरी से उस पर निशाना लेकर एक बर्स्ट फ़ायर किया. मैंने देखा कि उसके बाएं विंग से कोई चीज़ उड़ी है. उसके बाद मैंने अपनी स्पीड धीमी कर उसे थोड़ा लंबा फ़ायर दिया. फिर मैंने देखा कि उसके दाहिने इंजन से लपटें निकलने लगीं.”
फिर उसने नोज़ ओवर किया और 90 डिग्री की स्टीप डाइव लेता हुआ ज़मीन की तरफ़ गया. जैसे ही उसने ज़मीन को हिट किया वो आग के गोले में बदल गया और मुझे तभी लग गया कि जहाज़ में बैठे सभी लोग मारे गए हैं.”
इस विमान में बलवंतराय मेहता, उनकी पत्नी सरोजबेन मेहता, उनके तीन सहयोगी और ‘गुजरात सामाचार’ के एक संवाददाता सवार थे. इनमें से कोई भी जिंदा नहीं बच पाया. इस दुर्घटना के करीब 46 साल बाद पाकिस्तानी पायलट कैस हुसैन ने भारतीय विमान के पायलट जहांगीर इंजीनियर की बेटी फरीदा सिंह से ईमेल के जरिए अफ़सोस प्रकट किया. जाहिर है तब तक उनके पास अफ़सोस प्रकट करने के अलावा कुछ बचा भी नहीं था. ये बस दिल से बेगुनाहों के कत्ल का बोझ उतारने की कवायद भर थी.