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भारत-नेपाल संबंध: पीएम मोदी नेपाली विदेश मंत्री से क्यों नहीं मिले?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ज्ञवाली के बीच क्यों मुलाक़ात नहीं हो पायी?

इसको लेकर भारत और नेपाल के कूटनीतिक हलकों में राय बंटी हुई है.

मगर दोनों ही देशों में विश्लेषकों के बीच इस बात पर तो सहमति नज़र आई कि नेपाल के विदेश मंत्री के दौरे से कम से कम दोनों देश सीमा और मानचित्र को लेकर पैदा हुए विवाद पर बातचीत करने के लिए राज़ी तो हुए.

ज्ञवाली का दौरा अपने आप में दिलचस्प इस मायने में माना जा रहा है कि भारत आने से ठीक पहले नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने कहा था कि वो कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा के 370 वर्ग किलोमीटर के इलाक़े को नेपाल के अधीन लाना चाहते हैं.

kp oli

ओली ने ऊपरी सदन में क्या कहा

ओली ने ये बयान अपनी संसद के ऊपरी सदन यानी राष्ट्रीय सभा को संबोधित करते हुए दिया था और कहा था कि वो इस मामले का समाधान भारत के साथ बातचीत के ज़रिये ही करना चाहते हैं.

लेकिन इससे पहले का घटनाक्रम कुछ यूं था कि ओली ने संसद को भंग कर फिर से चुनाव कराने की सिफ़ारिश की थी जिसे नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने स्वीकार भी कर लिया है.

ओली को हमेशा से ही भारत के ख़िलाफ़ बोलने वाले नेताओं में शुमार किया जाता रहा है और भारत के कूटनीतिक हलकों में ये मान लिया गया है कि उनका झुकाव चीन की तरफ़ ज़्यादा है.

जिस दिन वो अपनी संसद के ऊपरी सदन को संबोधित कर रहे थे, उसी दौरान ओली ने कहा था, “कुछ लोग भारत के साथ ख़राब होते हुए रिश्तों के लिए मुझे ही दोषी ठहराते हैं. क्या मैं अहम मुद्दों को लेकर अपने होंठ सी लूं?”

gyawali and rajnath singh

नेपाली विदेशी मंत्री का दौरा कैसा रहा

ज़ाहिर है कि इस बयानबाज़ी के बीच ही ज्ञवाली का भारत दौरा हुआ और वो 14 जनवरी से लेकर 16 जनवरी तक भारत में रहे. इस दौरान उनकी मुलाक़ात भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर से हुई.

मगर अगली मुलाक़ात का ज्ञवाली और नेपाल के प्रधानमंत्री बेसब्री से कर रहे थे वो संभव नहीं हो पायी. यानी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ज्ञवाली की मुलाक़ात. अलबत्ता रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ज्ञवाली से मिले.

लेकिन इस पूरे दौरे के क्रम में भारत ने कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं दी और ना ही भारत का विदेश मंत्रालय इस दौरे को लेकर बहुत ज़्यादा उत्साहित ही दिखा. हालांकि, बीते एक साल के दौरान ये नेपाल के किसी भी बड़े नेता की ये पहली यात्रा थी. वो भारत और नेपाल के संयुक्त आयोग की छठी बैठक की साझा रूप से अध्यक्षता करने आये थे.

kp and modi

नेपाली मीडिया की तल्ख़ टिप्पणी

नेपाल की मीडिया भी ज्ञवाली के दौरे को लेकर दिलचस्पी बनाए हुए थी. काठमांडू से प्रकाशित अंग्रज़ी दैनिक ‘द काठमांडू पोस्ट’ ने इस दौरे को लेकर जो सम्पादकीय लिखा है उसका शीर्षक ही दिया, “दिल्ली अभी भी काफ़ी दूर है.”

समाचार पत्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि ज्ञवाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने में असफल रहे इस बात का संकेत है कि भारत ने भी इस दौरे कोको ई महत्ता नहीं दी. समाचार पत्र का कहना है कि अगर ज्ञवाली और मोदी के बीच मुलाक़ात होती तो इससे साफ़ संकेत जाते कि दोनों देशों के बीच जो संबधों में दरार सी दिख रही है वो ख़त्म हो रही है.

सम्पादकीय में ये भी कहा गया कि जब पिछले साल अक्टूबर से लेकर नवम्बर माह में रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ के निदेशक और भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला बारी-बारी से नेपाल के दौरे पर जाते रहे और वो प्रधानमंत्री ओली से भी मिलते रहे तो लगने लगा कि नेपाल के विदेश मंत्री के लिए भारत के दौरे की राह प्रशस्त हो रही है जबकि ऐसा नहीं था.

समाचार पत्र का कहना है कि ज्ञवाली से भारत के विदेश और रक्षा मंत्री की मुलाक़ात सिर्फ औपचारिकता ही थी.

नेपाल का मीडिया मानता है कि ज्ञवाली के दौरे की सिर्फ़ एक प्रमुख बात ये रही कि वो कोरोना वायरस की वैक्सीन की आपूर्ति के लिए भारत को राज़ी कर पाए.

modi in nepal

पीएम मोदी ने क्यों नहीं की मुलाक़ात?

हालांकि भारत में कूटनीतिक हलकों में ज्ञवाली के दौरे को लेकर कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखी. उसके संभावित कारण बताते हुए विदेशी मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार मनोज जोशी ने बीबीसी से कहा कि अब नेपाल को भी संकेत मिल चुका है कि सीमा का विवाद बयानबाज़ी से नहीं बल्कि बातचीत से ही सुलझ पायेगा.

जहां तक प्रधानमंत्री मोदी से ज्ञवाली की मुलाक़ात नहीं होने की बात है तो जोशी कहते हैं कि ये याद रखना होगा कि अब जिस सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए ज्ञवाली भारत आये हैं, उस सरकार को अपनी संसद का विशवास हासिल करना है जो कि नहीं है क्योंकि संसद ही निलंबित अवस्था में है.

सामरिक मामलों के जानकार और लंदन स्थित किंग्स कॉलेज के प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत कहते हैं कि ज्ञवाली से बात कर भारत को कुछ हासिल नहीं होगा क्योंकि नेपाल में उनकी सरकार अप्रैल के बाद रहेगी या नहीं इस पर ही संशय की स्थिति है.

पंत कहते हैं कि जब तक किसी देश की सरकार की वैधता स्थापित नहीं हो जाती, बातचीत के भी ख़ास परिणाम नहीं निकल सकते.

उनका कहना है कि नेपाल ने ज्ञवाली के भारत दौरे की भूमिका ही ग़लत बांधी थी. उनके अनुसार ज्ञवाली के भारत दौरे से पहले नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने जिस तरह भारत पर निशाना साधा उससे उन्हें परहेज़ करना चाहिए था.

यही वजह है कि भारत ने भी संयुक्त आयोग की बैठक में साफ़ कर दिया कि नेपाल को चाहिए कि वो पहले मैप यानी जो मानचित्र उसने कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को लेकर जारी किया है उस पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे. उसके बाद सीमा को लेकर पैदा हुए विवाद पर बात करने की बात भारत ने नेपाल के विदेश मंत्री को कही.

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मानचित्र विवाद की शुरुआत कैसे हुई

नेपाल की राजनीति में भारत हमेशा से अहम मुद्दा रहा है.

मगर इस बार दोनों देशों के बीच सुगौली संधी को लेकर पेंच फंसा हुआ है. ये इलाक़ा कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा में भारत- नेपाल और चीन का एक तरह का तिराहा है जो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में आता है.

1816 में हुई सुगौली संधि के अनुसार काली नदी के ‘वाटर-शेड’ यानी जल विभाजन को लेकर पेंच फंसा हुआ है जिसे नेपाल और भारत की सरहद के रूप में माना गया.

kalapani lipulekh

इस संधि में तत्कालीन ब्रितानी भारत और नेपाल के राजा के हस्ताक्षर हुए थे. अब नेपाल का कहना है कि 1816 के बाद से 1962 तक इस इलाके में नेपाल का नियंत्रण रहा था.

भारत का दावा है कि उसने इस इलाक़े को चीन के साथ वर्ष 1962 की जंग के बाद बंद कर दिया था. पिछले साल मई महीने में भारत ने इस रास्ते को खोलने की घोषणा की ताकि कैलाश मानसरोवर की यात्रा करने वालों को आसानी हो सके.

इस घोषणा के फ़ौरन बाद नेपाल ने अपना नया मानचित्र जारी किया जिसमें कालापानी को नेपाल के अभिन्न अंग के रूप में रेखांकित किया गया. इसके बाद दोनों देशों के बीच सम्बन्ध ख़राब होते चले गए और नेपाल के प्रधानमंत्री ओली भी भारत पर निशाना साधते रहे.

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