यह कहानी सीएम योगी आदित्यनाथ और महंत अवैद्यनाथ की पहली मुलाकात की है। बात अक्तूबर 1993 की है, महंत अवैद्यनाथ दिल्ली एम्स अस्पताल में हृदयरोग विभाग में इलाज करवा रहे थे। इस दौरान संक्षिप्त निंद्रा में अपनी आंख खोली तो देखा, सामने योगी खड़े थें। उनके चेहरे पर फीकी मुस्कान दौड़ पड़ी।
उनकी आंखें, हालांकि अभी भी वही सवाल पूछ रही थीं, जो उन्होंने कुछ महीने पहले ही पौढ़ी के इस युवा से पूछी थी, ‘क्या तुम मेरे शिष्य बनोगें?’ उस समय योगी ने विनम्रता पूर्वक इनका प्रस्ताव ठुकरा दिया था।
महंत को एक शिष्य की शिद्दत से तलाश थी, जो उनका उत्तराधिकारी बन सके और उनकी अनुपस्थिति में उनके नाम पर मंदिर प्रशासन का संचालन कर सके। दिग्विजयनाथ मात्र 48 साल के थे जब उन्होंने अवैद्यनाथ को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। परन्तु अवैद्यनाथ 74 साल की उम्र में भी यह कर पाने में सफल नहीं हो सके थे।
महंत अवैद्यनाथ को अपनी कहानी याद आ गई, जब 52 साल पहले उन्होंने भी अपने गुरू महंत दिग्विजयनाथ का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। हालांकि थोड़े समय बाद ही कहानी बदलनी वाली थी। कुछ समय बाद अजय को पता चला कि अवैद्यनाथ फिर से अस्पताल में भर्ती हैं और उनकी हालत गंभीर हैं। इस बार वो अपने आप को नहीं रोक सके।
अजय अस्पताल में मंहत अवैद्यनाथ के बिस्तर के पास खड़े थे, महंत आशा भरी निगाहों से उन्हें देख रहे थे। उन्होंने कहा कि मैंने अपना जीवन रामजन्मभूमि आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया है, किन्तु अपना शिष्य नहीं चुन सका हूं। अगर मुझे कुछ हो गया तो क्या होगा?
इसके बाद अजय ने कहा कि आप बिल्कुल ठीक हो जाएंगे, मैं जल्द गोरखपुर आऊंगा। इसके बाद योगी अपने घर गए और अपनी मां गोरखपुर जाने की बात कहीं तो उन्हें लगा कि बेटा नौकरी करने जा रहा है और वह गोरखपुर आ गए। उनके परिजनों को इसकी जानकारी छह महीने बाद हुई थी।